navratri

Navratri: नवरात्रि हिंदुओं का मुख्य त्यौहार है। नवरात्रि को नराते व नवरात्र के नाम से भी पुकारा जाता है। नवरात्रि मूलतः संस्कृत शब्द है, अपभ्रन्श होकर विभिन्न नामों से अलग अलग क्षेत्रों में पुकारा जाता है।नवरात्रि का अर्थ होता है ‘नौ रातें’। इन नौ रातों और दस दिनों के दौरान ब्रह्मा विष्णु महेश की माता दुर्गा देवी के श्रेठतम् नौ रूपों की पूजा की जाती है। 26 सितम्बर से शारदीय नवरात्रि आश्विन मास की प्रतिपदा से आरम्भ होकर नवमी तक मनायी जायेगी। यो तो दुर्गा के अनेक रूप हैं। दुर्गा अनेक रूप धारण करने के साथ अपने पुत्र शंकर की पत्नि का भी रुप धारण करती है फल स्वरूप उसे शैलपुत्री कहते है इस कारण से भी अधिकांश जनमानस शंकर की पत्नि को दुर्गा मानता है। यही सबसे बड़ी बिडम्बना है।

Navratri: इस बिडम्बना का निस्तारण हम अपने सदग्रन्थों की सच्चााई जानकर ही किया जा सकता है। सनातन धर्म के श्रेष्ठ ग्रन्थ गीता व वेद है पर इनमें कहीं भी दुर्गा की पूजा का विधान नहीं मिलता है। पुराण स्वयं उलझे हुये है पूराणों में कुछ वेद का ज्ञान तो कुछ अज्ञान जनित ऋषियों का भ्रमित ज्ञान तो कुछ ब्रह्मा जी समेत त्रिलोकी देवों का अनसुलझा ज्ञान तो कुछ कुछ किस्से कहानियों का समन्वय है। इस कारण से समस्त मानव जाति उलझी हुई है। कोई सिर पकड़ लेता है तो कोई पैर इस कारण मूल ज्ञान उलझा रहता है। पुराणों में दुर्गा स्वयं अपनी पूजा से मना करती है । प्रमाण सहित यथार्थ जानने के लिये सन्त रामपाल जी महाराज की पुस्तकों का अध्ययन करें । दुर्गा देवी को प्रकृति भी कहते है। तत्वज्ञान ना होने की वजह से आचार्यों ने दुर्गा को अन्य विभिन्न नामों से संबोधित किया है । दसवाँ दिन दशहरा के नाम से प्रसिद्ध है।

नवरात्रि वर्ष में चार बार चैत्र, आषाढ,अश्विन माघ मास की प्रतिपदा से नवमी तक मनाये जाने का प्रावधान लोक वेद आधारित ग्रन्थों में है। पर विशेष रूप से चैत्र नवरात्रि व शारदीय नव नवरात्रि को मनाया जाता है । गुजरात में दुर्गा की आरती से पहले गरबा व बाद में डांडिया नृत्य दुर्गा के सम्मान में किया जाता है। बंगाल के लोग इस त्यौहार को विशेष धूमधाम से मनाते है।

नवरात्रि पर्व पर संसारी लोग ब्राह्मणों की मदद से यज्ञ समेत नाना क्रियायें करते है। क्या यह क्रियायें उचित है आओ मंथन करते हैं। पहले यह समझते है प्राचीन काल में जब सिर्फ संस्कृत का ही बोलवाला था तब ब्राह्मणों को संस्कृत का कितना ज्ञान था और आज के ब्राह्मणों को कितना है इस कथा से समझा जा सकता है।

Navratri: राम रावण युद्ध के दौरान रामा दल व रावण दल एक दूसरे को परास्त करने के लिये तरह तरह के हथकण्डे अपनाये जा रहे थे। तब दुर्गा के ज्येप्ठ पुत्र ब्रह्माजी ने अपने छोटे भ्राता विष्णु अवतारी राम को चण्डी यज्ञ करने को कहा ताकि दुर्गा प्रसन्न होकर त्रिलोकी भगवान विष्णु के बारह कला अवतारी राम की मदद करे । हवन के लिये अति दुर्लभ नीलकमल की आवश्यकता थी । दुर्लभ नीलकमल की किसी तरह व्यवस्था तो हो गयी पर यज्ञ के दौरान एक नीलकमल गायब हो गया । यह रावण की चाल थी। रावण अनेक विद्याओं का ज्ञाता था एक तरह का वैज्ञानिक समझो । साथ में जप तप संयम से अनेक काल प्रेरित सिद्धियों को भी रावण ने अर्जित कर लिया था। रावण ने एक नीलकमल अपनी मायावी शक्ति से गायब कर दिया था । त्रिलोकी भगवान रामचन्द्र को लगा कि अब उनका यज्ञ असफल हो जायेगा। ऐसा विचार कर ही रहे थे तभी उन्हें विचार आया कि उनके नेत्रों को नीलकमल की संज्ञा दी जाती है क्यों ना हम अपने नेत्र को निकालकर हवन में अर्पित कर दें। श्री राम अपना नेत्र निकालने को उद्धत हुये उसी दौरान उनकी चौसठ कला युक्त मां दुर्गा उनके सामने प्रकट हो गयी । दुर्गा राम से बोली मैं प्रसन्न हूं राम को विजय श्री का आशीर्वाद देने के बाद दुर्गा अन्त्रध्यान हो गयी। उपरोक्त कथा से इन त्रिलोकी भगवान विष्णु की शक्ति का पता तो लग जाना चाहिए ।

Navratri: दूसरी तरफ रावण ने विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से भी चण्डी यज्ञ आरम्भ कर दिया जब रामा दल को पता लगा कि रावण चण्डी यज्ञ करने जा रहा है तो रामादल मे मन्त्रणा हुई कि किसी तरह रावण का चण्डी यज्ञ विफल कर दिया जाये ।हनुमान जी ने एक बालक ब्राह्मण का रूप बनाया व रावण का यज्ञ सम्पन्न करवाने वाले ब्राह्मणों के बीच घुल मिल गये। ब्राह्मणों की खूब सेवा की व आदर दिया। सभी ब्राह्मण , ब्राह्मण बने हनुमान से अति प्रसन्न थे। ब्राह्मण हनुमान की चाल को नहीं पहचान पाये। ब्राह्मणों से हनुमान ने अनुष्ठान में एक अक्षर बदलने का आग्रह किया। उन्होने ब्राह्मणों से कहा कि भूर्तिहरिणी में आये ह अक्षर के स्थान पर क लगाकर भूर्तिकरिणी का उच्चारण कीजिये। ब्राह्मणों को इस बात का बिल्कुल ज्ञान नहीं था कि भूर्तिहरिणी की जगह भूर्तिकरिणी का उच्चारण करने पर चण्डी यज्ञ का प्रतिफल उल्टा हो जायेगा। भूर्तिहरिणी का अर्थ होता है प्राणियों की पीड़ा दूर करने वाली भूर्तिकरिणी प्राणियो को पीड़ित करने वाली। यानि दुर्गा के लिये सम्बोधन गलत हो गया।

सम्बोधन गलत हो जाने मात्र से दुर्गा रूष्ट हो गयी। हनुमान जी ने ह की जगह क करवाकर यज्ञ की दिशा और दशा दोनों को बदल कर रख दिया। कर्मकाण्ड में संस्कृत के मन्त्रों का उच्चारण बहुत महत्व रखता है । यदि कर्मकाण्ड में स्वर की उसी मात्रा तक के उसी स्वरूप का उच्चारण ना किया जाये तो यज्ञ का फल उल्टा हो जाता है। यहां पर तो हनुमान ने इस यज्ञ में सिर्फ अक्षर बदलवा दिया था।

इस कथा का निष्कर्ष यह है कि यज्ञ के दौरान एक अक्षर या शब्द की फेरबदल से अर्थ कुछ का कुछ हो सकता है। जैसे डरना ओर मरना में सिर्फ एक अक्षर का फेरबदल है। कभी कभी कामा के फेरबदल से अर्थ का अनर्थ होने का भाव दिखाई पडत़ा है जैसे रोको , मत जाने दो ।रोको मत, जाने दो। यहां पर सबसे अधिक चौकाने वाली बात यह है कि सिर्फ कामा एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर लगाया गया है।

Navratri: प्राचीन काल में संस्कृत के विद्वान हुआ करते थे आज के यज्ञ कर्ता जिन्हें संस्कृत का उच्चारण तक नहीं आता ऐसे यज्ञकर्ताओं से दुर्गा की यज्ञ किस हद तक सफल हो रही होगी विचार करें। हर व्यक्ति को अपना प्रारब्ध मिलता है। प्रारब्ध को बदलने की शक्ति शास्त्रानुकूल सतसाधना में होती है। सतसाधना प्रदान करने वाला सदगुरू पूरे विश्व में सिर्फ एक होते हैं। उनको ना पहचानकर जीव कष्ट पर कष्ट उठाता है।

Navratri: जिस तरह गीत लिखने वाले अलग होते हैं और गाने वाले अलग होते है उसी तरह कर्मकांडी ब्राह्मणों को संस्कृत का वास्तविक ज्ञान नही होता था यदि होता तो वह उच्चारण में शब्द परिवर्तन नही करते। । संस्कृृत लौकिक वैदिक मन्त्रोक्त तीन प्रकार की होती है। तीनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। मन्त्रोक्त संस्कृत के मन्त्र का उच्चारण अति शुद्ध तरीके से होता है। जिन ब्राह्मणों को लौकिक संस्कृत तक का ज्ञान नहीं ऐसे ब्राह्मण जब मन्त्रोक्त संस्कृत की सहायता से नवरात्रि का यज्ञ करते कराते होगे उससे भला क्या लाभ मिलने वाला जो कुछ मिलता वह आपके अपने प्रारब्ध का मिलता है । प्रारब्ध में परिवर्तन सतगुरु रूप में खुद परमात्मा कविर्देव जिनका अपभ्रन्श नाम कविरदेव कबिरदेव कबीर देव या कबीर साहेब है, वह कर सकते या उनका नुमाइन्दा।

वरना नव रात्रि का पर्व गरीब भी मनाता है अमीर भी मनाता है। गरीब, गरीब का गरीब रह जाता है अमीर उल्टा ज्यादा अमीर बन जाता है। यह अलग बात है कुछ एक पुण्यात्माऔं के प्रारब्ध आगामी वर्षों में फलते देखे गये पर वह उनका प्रारब्ध था ना कि किसी देव या दुर्गा की पूजा का फल यदि देव या दुर्गा की पूजा का प्रताप था तो सभी के प्रारब्ध पूजा के बाद एक साथ जग जाने चाहिये थे।

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एक दूसरे के यज्ञों में विध्न देवता भी डालते थे और दानव भी । यज्ञ त्रुटि रहित सम्पन्न हो इसका विशेष ख्याल रखा जाता था।

यों तो इन देवी देयताओं की पूजा से आत्मकल्याण का कोई सम्बन्ध नहीं है। इनकी क्रियाओं में जरा सी त्रुटि हो जाने पर उल्टा नुकसान। माना कि इन देयताओं की क्रियाओं से कोई फल प्राप्त भी होता है तो वह नाशवान है। क्योंकि इन देवताओं के लोक अस्थायी है। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जिसका फल नाशवान उस फल को प्राप्त करने का क्या औचित्य । मानव की मुख्य समस्या आवागमन का चक्र है आवागवन का चक्र किसी भी पूजा साधना से नहीं मिट सकता।

satlok aasram

सन्त रामपाल जी महाराज ने सृष्टि रचना में जो ज्ञान दिया है उसी से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है । वरना अज्ञानी गुरुओं ने जीव को हर तरह से उलझा रखा है। सन्त रामपाल जी महाराज की सृष्टि रचना व ज्ञान के अनुसार ब्रह्मा विष्णु महेश का अधिपत्य सिर्फ तीन लोको में है वह भी तीन लोक के अन्दर एक गुण के स्वामी हैं ।
दुर्गा इन सबकी मां है पिता ब्रह्म है पूर्ण ब्रह्म कविर्देव जी है जिनका अपभ्रन्श नाम कविर देव ,कबिरदेव ,कबीरदेव या कबीर साहेब के रूप में संसार में प्रचलित है।

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